पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाली महिलाएं अपनी भक्ति और साधना को अद्वितीय रूप से व्यक्त करती हैं। उनकी कृतन भजनें पहाड़ी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बन चुकी हैं और इससे समृद्धि के अद्वितीय सूचक होते हैं। इन महिलाओं का संबंध प्राकृतिक सौंदर्य और आत्मनिर्भरता से होता है, जो उन्हें अपने आत्मा के साथ संवाद में लाने में मदद करता है। उनकी भजनों में अद्वितीय ध्वनियाँ होती हैं, जो प्राकृतिक सुंदरता की महक को महसूस कराती हैं। इन महिलाओं का ध्यान अपनी स्थानीय परंपरा, रूढ़िवाद, और आत्मा की ऊँचाइयों की ओर होता है। ये महिलाएं न केवल धार्मिक भावनाओं में रूचि रखती हैं, बल्कि उनका संबंध भूमि और प्राकृतिक तत्वों से भी होता है। उनकी भक्ति और साधना में एक शांति और समृद्धि का अहसास होता है, जो उन्हें अपने क्षेत्र के सांस्कृतिक आधार पर गर्व महसूस करने का अवसर देता है। इन महिलाओं की भक्ति भावना से भरी होती है, जो उन्हें संतुलित और संतुष्ट जीवनशैली की दिशा में मार्गदर्शन करती है। उनके भजन न केवल धार्मिकता को बढ़ावा देते हैं, बल्कि उनमें सामाजिक समर्थन और सजीवता की भावना भी होती है। इन महिलाओं के भजनों से हमें प्रेरणा मिलती है कि कैसे वे अपने स्थानीय सांस्कृतिक विरासत को सजीव रखती हैं और उसे आगे बढ़ाती हैं। इनकी आवश्यकता है कि हम समृद्धि, सामृद्धि, और सांस्कृतिक समृद्धि के माध्यम से उनके साथ सहयोग करें ताकि इन अनमोल भावनाओं को हमारी समृद्धि का हिस्सा बना सकें।
Atul Gusain jakhi
Monday, January 29, 2024
Thursday, December 21, 2023
Tuesday, January 17, 2023
Monday, January 9, 2023
Monday, June 8, 2020
Thursday, May 21, 2020
Friday, December 6, 2019
टूटी चप्पल !
टूटी चप्पल !
मैं लिख सकता हूँ
उस टूटी चप्पल की कहानी
जो यथार्थ है
जो स्कूल जाते वक्त चौदह बार निकल जाती थी
बैलों के पीछे भागते तो हाथ में लेनी पड़ती थी
जिसके और टूटने की डर से मैने क्रिकेट नहीं खेला
सब दौड़ते-भागते और मैं भी हंस लेता
दगड़ियों की जिद पर
नंगे पैर खेलता फिर कोई बहाना सूझ ही जाता
रोज शाम घर के नजदीक फिर चप्पल तोड़ देता
इस उम्मीद में कि पिताजी देखकर नयी ले आयें।
© महेन्द्र सिंह राणा 'आजाद'
मैं लिख सकता हूँ
उस टूटी चप्पल की कहानी
जो यथार्थ है
जो स्कूल जाते वक्त चौदह बार निकल जाती थी
बैलों के पीछे भागते तो हाथ में लेनी पड़ती थी
जिसके और टूटने की डर से मैने क्रिकेट नहीं खेला
सब दौड़ते-भागते और मैं भी हंस लेता
दगड़ियों की जिद पर
नंगे पैर खेलता फिर कोई बहाना सूझ ही जाता
रोज शाम घर के नजदीक फिर चप्पल तोड़ देता
इस उम्मीद में कि पिताजी देखकर नयी ले आयें।
© महेन्द्र सिंह राणा 'आजाद'
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